मानसून में पार्वती घाटी
मॉनसून में पार्वती घाटी किसी तिलिस्मी दुनिया सी लगती है। पानी की बूँदों से धुलकर पेड़-पौधे नये से हो जाते हैं। घास फ्लोरोसेंट हरे रंग की दिखती है, पहाड़ गहरे हरे-नीले रंग के और पेड़ इन दोनों रंगों के बीच के रंग के। पूरी घाटी कैनवास पर बनी किसी पेंटिंग सी दिखाई देती है। मानसून में पार्वती घाटी में बिताए 3 दिन मेरे जीवन के सुन्दरतम अनुभवों में से एक है। पिछली पोस्ट में मैंने कसोल प्रवास के दूसरे दिन के अनुभव के बारे में लिखा था इस पोस्ट में मैं उससे आगे की अनुभव को शब्दों में समेटने की कोशिश करुँगी।
कसोल में दूसरे दिन मैं चोज गाँव से मणिकरण गई थी और उसके बाद कसोल के बाजार में घूमती रही। मैंने आपको बताया था कि वापस लौटने में देरी हो जाने के कारण अंधेरा हो गया था। मैं होमस्टे का रास्ता भूल चुकी थी, तो मुझे एक काले रंग के कुत्ते ने मेरे होमस्टे पहुँचाया। वह अनुभव भी अपनी तरह का अनोखा अनुभव था। जब मैं होमस्टे पहुँची, तो घर के लोग मेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा। परदेस में कोई आपकी फ़िक्र करे, इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है। मैंने पहले चाय पी और फिर कमरे में बैठकर दिनभर की बातों को याद करने लगी।
थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि कुछ लड़के पूरी तरह से पानी में भीगे होमस्टे के आँगन में आए हुए हैं। पता चला कि वे खीरगंगा ट्रेक करके आ रहे हैं । देखने में लग रहा था कि सभी ऊपर से लेकर नीचे तक भीगे हुए हैं, लेकिन फिर धीरे-धीरे करके उन्होंने अपने रेनकोवर उतारने शुरू करे, तब मुझे समझ में आया कि दरअसल उनके रेनकवर के नीचे के कपड़े सूखे थे।
मैं मानसून में पार्वती घाटी खीरगंगा ट्रेक पर जाने के लिए सोचकर निकली थी, लेकिन कसोल प्रवास के तीसरे दिन इतनी बारिश होनी शुरू हो गयी। होमस्टे के जिन लड़कों को ट्रेकिंग पर जाना था, वे बारिश में भी सुबह-सुबह निकल गए। सुबह सोकर उठते ही मुझे थोड़ी चहल-पहल दिखाई दी। ट्रेकिंग पर जाने वाले सारे लड़के-लडकियाँ ट्रेकिंग गियर्स के साथ तैयार थे। उन्होंने ऊपर-नीचे रेनकवर पहन रखा था। पिट्ठू बैग पर पोंचो डाल रखा था। इसके अलावा उनके जूते भी पानी में न भीगने वाले (water resistant) थे।
मैंने इस बात पर ध्यान दिया कि मेरे पास मॉनसून में ट्रेकिंग करने के लिए पर्याप्त गियर नहीं है। इसीलिए मैंने खीरगंगा ट्रेक का प्लान स्थगित कर दिया। तब तक मुझे ट्रेकिंग का कोई अनुभव नहीं था और मैंने महसूस किया कि पहली ट्रेकिंग के लिए या तो साथ में कोई गाइड होना चाहिए या फिर कोई अनुभवी व्यक्ति। मानसून में पार्वती घाटी यदि ट्रेकिंग के लिए आयें, तो बारिश से सम्बन्धित सभी गियर साथ होने चाहिए। इसके अंतर्गत रेनकवर, जिसमें ऊपर का कोट और पैंट आते हैं, या पोंचो, जो ऊपर से डाला जाता है, पानी से जल्दी न भीगने वाले (water resistant ) जूते, एक ट्रेकिंग करने वाली छड़ी जिसे ट्रेकिंग पोल कहा जाता है- ये सभी चीज़ें आती हैं।
उस दिन सुबह से ही रिमझिम बारिश हो रही थी। मौसम काफी ठण्डा हो गया था और रास्ता फिसलन भरा। इसके बाद भी बीच-बीच में बारिश रुक जाती, तब मैं होमस्टे से बाहर निकल कर नदी के किनारे खिले फूलों और पत्तियों को देखती और उनकी फोटो लेती। सच कहूँ तो बस इसी में मुझे बहुत आनंद आ रहा था। मैं सोच रही थी कि पहाड़ों की हवा को अपने भीतर इतना भर लूँ कि दिल्ली का प्रदूषण असर ही न करे।
एक बार बारिश के रुकने पर मैं नदी किनारे टहल रही थी कि अचानक तेज़ी से बौछार पड़ने लगी। छाते की वजह से शरीर का ऊपरी भाग तो बच गया, लेकिन मेरा ट्राउज़र और जूते भीग गये। मैं जल्दी से होमस्टे की ओर भागी और अपने कमरे में पहुँचकर कपड़े बदले। शुक्र था कि ट्राउज़र ट्रेकिंग वाला ही था, इसलिए जल्दी सूख गया। जूते सूखने में समय लगा।
इसके बाद तो कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता था। मैं अपने कमरे में कैद हो गयी। मैंने होमस्टे रुक कर कुछ पढ़ने और लिखने का निश्चय किया। मैं बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पा रही थी, लेकिन कसोल में मन कर रहा था मैं यहीं रुक जाऊं और एक किताब लिख डालूँ या तो बहुत सारी किताबें पढ़ डालूँ।
मैं जब इस होमस्टे में आई थी, तो अकेली लड़की थी। दूसरे और तीसरे दिन से कुछ और लडकियाँ भी अपने दोस्तों के साथ दिखने लगी। मैं बालकनी में बैठकर कुछ पढ़ रही थी कि एक लड़की हुक्के का नशा करती दिखी। हुक्का अजीब फितूर है इस पीढ़ी का। अफीम-चरस का नशा करने वालों को देखकर सभी को अजीब लगता होगा। मैं वैसे तो इतना ध्यान नहीं देती, लेकिन यह जरूर सोचती हूँ कि क्या मिलता होगा इनको? इस धरती पर हजारों ऐसी चीजें हैं जिन्हें देखना-सुनना अद्भुत आनंद देता है और उसके लिए होश में होना जरूरी है। किस से भाग रहे हैं युवा? किस से बच रहे हैं? फिर सोचा कि उनकी अपनी जिंदगी है, जो चाहे करें।
नशे की बात से एक और बात की ओर ध्यान गया। कसोल को बहुत से लोग नशे की वजह से जानते हैं। यहाँ मारिजुआना या मारियुवाना (Marijuana)के पौधे प्राकृतिक रूप से पैदा होते हैं। लड़के-लडकियाँ उसी को हुक्के में डालकर नशा करते हैं। अपने होमस्टे जाते समय मैंने ध्यान दिया था कि पार्वती नदी के ठीक किनारे जो टेंट लगे हुए थे, उनमें तेज आवाज में म्यूजिक चलाकर लड़के हुक्का पी पी के मस्त पड़े रहते थे।
कसोल के लोकप्रिय होने का एक कारण यह भी है कि तीर्थन वैली की तरह यहाँ पर कोई नेशनल पार्क नहीं है कि पार्टी करना तेज आवाज में संगीत बजाना या फिर बोनफायर करना मना हो। यहाँ पर आप यह सब आराम से कर सकते हैं। इसीलिए दिल्ली-पंजाब-हरियाणा-चंडीगढ़ आदि जगहों से सप्ताहांत (Weekend) में युवा यहाँ एकत्र होकर पार्टी करते हैं। मेरे होमस्टे में भी रात में कुछ लड़के तेज आवाज में संगीत बजा रहे थे, लेकिन मेरे टोकने पर उन्होंने वॉल्यूम कम कर दिया। मुझे पता था मन ही मन मुझे कोस रहे होंगे।
एक बात कहना चाहूँगी कि ऊपर की सभी बातों के बावजूद मुझे ज़रा सा भी अटपटा या असुरक्षित महसूस नहीं हुआ। बल्कि मुझे अच्छा लग रहा था कि वहाँ घुमने आये युवाओं की उपस्थिति को मैं स्वीकार कर पा रही थी। शायद अकेले निकलने की वजह से मेरे आत्मविश्वास में वृद्धि हुयी थी या शायद मानसून में पार्वती घाटी में पसरी शान्ति और सौन्दर्य के कारण मैं अधिक उदार बन रही थी।
जो भी हो कसोल के उस गाँव के उस छोटे से होमस्टे में बिताये उन तीन दिनों ने मुझे अन्दर से बहुत बदल दिया था। वहाँ से वापस दिल्ली आते हुए मैं बहुत हल्का महसूस कर रही थी। मुझे बिना हुक्का पिए ही नशा हो गया था। वापसी की यात्रा की कहानी भी बड़ी निराली है। बस मनाली से आ रही थी और वहाँ से बस में बैठे साथ बांग्लादेशी यात्रियों से मेरी दोस्ती हो गयी।
वे सभी लोग बांगला लहजे में हिन्दी बोल ले रहे थे। इसीलिए मैं उनसे बात कर पा रही थी। दरअसल, मेरी बात तो एक दो से ही शुरू हुयी थी। लेकिन उन्हें जब पता चला कि मैं पहली बार अकेली घूमने निकली हूँ, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। वे मुझसे मेरे अनुभवों के बारे में पूछने लगे। फिर उन्होंने बताया कि वे छः कॉलेज के समय से दोस्त हैं और अक्सर घूमते रहते हैं। उन दिनों ईद की लम्बी छुट्टियाँ थीं, तो वे बर्फ़ के पहाड़ देखने पहली बार भारत आये थे। वे रोहतांग दर्रे गये थे और बर्फ़ देखकर अभिभूत थे।
फिर तो पूरे रास्ते हमने इतनी बातें कीं कि आसपास के यात्री परेशान हो गये। मुझे एकदम अंतिम समय में बुक करवाने की वजह से बिलकुल पीछे की सीट मिली थी। वैसे भी भुंतर में कुछ ही सीटों का कोटा होता है। पीछे की सीट में लग रहे झटकों की वजह से मेरी तबीयत खराब होने लगी। ऐसे में उन बांगलादेशी दोस्तों ने बहुत मदद की। उनमें से एक ने अपनी आगे की सीट मुझे दे दी और ख़ुद पीछे बैठ गये। उन दोस्तों में से लगभग पाँच अब भी मेरे फेसबुक मित्र हैं।
तो यह थी मानसून में पार्वती घाटी और कसोल के चोज गाँव की कुछ यादें और अनुभव। मैंने इस यात्रा से बहुत कुछ सीखा। सबसे बड़ी बात यह थी कि यदि आप ठान लेते हैं, तो कुछ भी असम्भव नहीं होता। दरअसल हम लडकियों के दिमाग में बचपन से ही डर भर दिया जाता है। यह डर हमें दुनिया देखने, नये-नये दोस्त बनाने, नयी बातों का अनुभव करने से रोकता रहता है। इससे उबरने में मैंने जीवन के कई दशक लगा दिये। आपने कितने लगाये?
कसोल में लिखे गये कुछ नोट्स-
“कितना शांत है यहाँ सब कुछ, ठहरा, रुका हुआ सा, बह रही है तो पार्वती नदी, हरहराती हुई, उद्दाम वेग से आगे बढ़ती हुयी। कुछ चिड़ियों और जंगली कीड़ों की आवाजें हैं और हमारी मेजबान की छोटी बच्ची की किलकारियाँ।”
“शाम के 6:00 बज रहे हैं। सारे इनमेट्स घूमने या ट्रैकिंग पर निकले हैं, एक मैं ही कमरे में बैठकर अपने अनुभव लिख रही हूँ। ट्रिपल शेयरिंग बेड रूम है, जिसमें मैं अकेली रह रही हूँ। यहाँ पहाड़ की सबसे खास बात है ये लोग काली चाय बहुत अच्छी बनाते हैं।”
“यहाँ के माहौल में ही घुला हुआ है। उस निषिद्ध चीज़ के बारे में सब आराम से बातें करते हुए दिखाई देते हैं, जिस पर कानूनी पाबंदी
है।”
पिछली पोस्ट