चोज गाँव से मणिकर्ण – एक सुहाना सफ़र (कसोल-यात्रा भाग 2)

चोज गाँव से मणिकर्ण – एक सुहाना सफ़र

 

चोज गाँव से मणिकर्ण तक का सफ़र मेरी ज़िन्दगी की यादगार पैदल यात्राओं में से एक है। मैं जब भी उस यात्रा को याद करती हूँ तो एक अद्भुत रोमांच से भर जाती हूँ। ऐसे अनुभव जीवन में ताज़गी और उमंग भर देते हैं। जीवन जीने की ऊर्जा देते हैं। यह पोस्ट कसोल की मेरी यात्रा के अनुभवों पर आधारित शृंखला की दूसरी कड़ी है। यह मेरी पहली सोलो ट्रिप थी। पिछली पोस्ट में मैंने आपको दिल्ली से कसोल के चोज गाँव तक पहुँचने की कहानी बतायी थी। इस पोस्ट में चोज में बिताये दिन और चोज (छोज) से मणिकर्ण साहिब गुरूद्वारे तक की अपनी पैदल यात्रा के विषय में बताऊंगी।

हमें ट्रेकिंग या एडवेंचर ट्रिप पर जाने से पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि वहाँ पर हमें अपने घर या किसी होटल की तरह लग्ज़री नहीं मिलेगी। बस जरूरत भर का सामान होगा। सुविधाएँ कम मिलेंगी, लेकिन अनुभव नये-नये होंगे।

मैं जिस होमस्टे में रुकी थी, वहाँ आरामदायक बिस्तर भी नहीं था। मूलभूत सुविधाओं (basic amenities) के नाम पर कुछ ख़ास नहीं था। वाई-फ़ाई था, लेकिन वह भी बहुत स्लो स्पीड में काम कर रहा था। हाँ, खाना जरूर घर जैसा मिलता था क्योंकि उसे घर के होस्ट संजय के बड़े भाई जगदीश भैया बनाते थे। मैं सोलो ट्रेवलर थी और वह भी महिला इसलिए मेरा ख़ास ख़याल रखा जा रहा था और खाना कमरे में पहुँचा दिया जाता था। उस घर में कुकिंग जगदीश भैया करते थे और बाकी का काम उनकी पत्नी के जिम्मे था । घर के सभी कमरों की सफ़ाई करना और चादर वगैरह धुलना उनका काम था। वह पीठ पर छोटी बच्ची को बाँधकर काम करती थी। सारा दिन उनकी वाशिंग मशीन चलती रहती थी। बीच-बीच में हो रही बारिश की वजह से उनका काम और बढ़ जाता था। संजय आने वाले गेस्ट के मैनेजमेंट का काम संभालते थे।

दो फ्लोर का बड़ा सा घर था, जिसमें लगभग आठ से दस कमरे थे। मैं फर्स्ट फ्लोर पर थी। इस फ़्लोर पर एक ही वॉशरूम था, जो साझा था। मतलब उस फ़्लोर के लड़के-लड़कियाँ दोनों उसी बाथरूम को इस्तेमाल कर रहे थे। शेयरिंग बाथरूम से मुझे थोड़ी समस्या तो हो रही थी, लेकिन कमरे के किराए को देखते हुए वह असुविधा बिल्कुल कुछ नहीं थी। उस कमरे के लिए मैंने पहले दिन हज़ार रुपए पे किए थे, उसके बाद के दो दिन सिर्फ़ पाँच सौ। हाँ, खाना, चाय और नाश्ते के लिए अलग से चार्ज़ देना पड़ा। बाज़ार की अपेक्षा होमस्टे में खाना महँगा था। आप सिर्फ़ खाने के लिए  डेढ़ किमी चलकर बाज़ार नहीं जा सकते थे, इसलिए होमस्टे में ही खाना पड़ता था।

होमस्टे पहुँचने के दूसरे दिन मतलब 28 जून को सुबह-सुबह मेरी नींद चिड़ियों की आवाज़ से खुली। मैंने खिड़की से बाहर झाँककर देखा, तो चारों ओर धुंध थी। सुबह के लगभग 5:30 6:00 बज रहे होंगे। अभी पूरी तरह नहीं हुआ था। पूरी घाटी में बादल छाए हुए थे। इसलिए और भी अधिक अंधेरा था। आसपास से कई तरह के पक्षियों की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। मैं खिड़की के पास बैठकर न जाने कितनी देर तक चिड़ियों के सुरीले गानों को सुनती रही। मैंने समय पर भी ध्यान नहीं दिया।

होमस्टे
होमस्टे की बालकनी

थोड़ी देर बाद होमस्टे के और लोग भी उठ गए और चहल-पहल होने लगी। मैंने चाय के लिए ऑर्डर दे दिया और फिर बालकनी में जाकर बैठ गयी। आसपास का वातावरण देखकर मुझे लग रहा था कि मैं किसी और दुनिया में हूँ। चिड़ियों की आवाज़ें वादी में दूर तक गूँज रही थीं। पार्वती नदी में बहते पानी की घरघराहट उन्हें बैकग्राउंड म्यूज़िक देने का काम कर रही थी। मानो प्रकृति ने पूरा ऑर्केस्ट्रा सजा दिया हो। प्रकृति का यह संगीत अद्भुत था। मैं बहुत देर तक बालकॉनी में बैठी अभिभूत होती रही। घाटी में धुंध और बादल थे, इसलिए बहुत दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था पर चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में बहती पार्वती नदी, उसके दोनों किनारे से पहाड़ों की ढलानों तक खड़े विशालकाय देवदार के पेड़, मैदानों में फैले छोटे-छोटे फूल, भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ मिलकर अलौकिक सा माहौल उपस्थित कर रहे थे। वह अनुभव वर्णनातीत था। मेरा मन हो रहा था मैं चुपचाप यहीं बैठ कर सारा दिन इन सुन्दर दृश्यों को अपने मन में एकत्रित करती रहूँ। उस वातावरण को महसूस करती रहूँ।

पार्वती घाटी
पार्वती घाटी

चोज गाँव से मणिकर्ण – एक सुहाना सफ़र

उस दिन मेरा मणिकरण जाने का प्लान था। लेकिन सुबह से ही रिमझिम-रिमझिम बारिश हो रही थी, जो दोपहर के खाने के बाद लगभग एक से डेढ़ बजे के क़रीब रुकी। मैंने संजय से पूछा कि चोज गाँव से मणिकर्ण जाने के लिए कौन सा साधन मिलेगा? संजय का जवाब वही था पैदल चली जाइए, थोड़ी ही दूर पर तो है। पर तब तक मुझे पहाड़ वालों के “थोड़ी ही दूर” का अंदाजा हो गया था। इसलिए मैंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया।

आखिर पुल पार करके मैं कसोल से मणिकरण के रास्ते पर आ गई। मणिकरण के लिए बसें भी चलती हैं, पर बस पकड़ने मुझे उल्टी तरफ कसोल जाना पड़ता। इसलिए मैंने मणिकरण की तरफ चलना शुरू कर दिया। पार्वती नदी भी मेरे साथ-साथ चल रही थी। मैं रास्ते में जिससे भी पूछती कि मणिकरण कितनी दूर है? वही कहता थोड़ी दूर पर है। आखिर मैंने एक जन से किलोमीटर में दूरी पूछी। उन्होंने बताया कि लगभग डेढ़-दो किमी पड़ेगा। भारी वाला बैग पीठ पर नहीं था, इसलिए डेढ़ किलोमीटर चलना मेरे लिए कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। रास्ता और मौसम दोनों ही सुहाने थे। पहाड़ी कस्बों और रास्तों पर पैदल चलना मेरे लिए वैसे भी “स्ट्रेस बस्टर” का काम करता है।

 

चोज गाँव से मणिकर्ण- एक सुहाना सफ़र
चोज गाँव से मणिकर्ण का सफ़र

चोज गाँव से मणिकर्ण जाते हुए मैं बीच-बीच में रुकती। कभी कैमरे से फोटो खींचती, कभी मोबाइल से। कहीं-कहीं मैं किसी पत्थर पर बैठ जाती और चुपचाप नदी को बहते हुए देखती। थोड़ी दूर चलने पर मुझे स्थानीय वेशभूषा में एक वृद्ध महिला दिखाई दीं। मैंने उनसे पूछा एक तस्वीर ले लूँ? मैं उनकी भाषा तो नहीं समझ पायी, पर इशारे से लगा कि वे मुझसे फोटो के बदले में पैसे माँग रही हैं। मैंने पूछा कितने पैसे? उन्होंने दोनों हाथ की दसों उंगलियाँ दिखा दीं। ₹10? पहले मुझे हँसी आयी। ₹10 मॉडल की फ़ीस? फिर मैंने उनकी आँखों में देखा और उदास हो गयी। मानो पहाड़ का सारा दुःख उनकी आँखों में उतर आया हो। आखिर मैंने फोटो के लिए उन्हें ₹50 दिए। उन्होंने अपनी भाषा में मुझे पता नहीं कितने आशीर्वाद दे डाले।

कसोल से मणिकर्ण के सफ़र में ये माता जी मिलीं, जिनसे इजाज़त लेकर मैंने तस्वीर ली.
अम्मा जी, जिनसे इजाज़त लेकर मैंने तस्वीर ली.

मैं आराम से चलती जा रही थी, जैसे कोई जल्दी ही न हो, जैसे मैं चाहती हूँ कि यह रास्ता ख़त्म ही न हो। मंज़िल आये ही न। मैं इन्हीं रास्तों में भटक जाऊँ। रास्ते में लकड़ी पत्थर से बने हुए कई पुराने घर दिखे। लोग उन्हें छोड़ गये थे। ऐसी भूली-बिसरी टूटी-फूटी चीज़ें मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। मैंने कई घरों की फ़ोटो लीं।

चोज गाँव से मणिकर्ण या मणिकरण पहुँचते-पहुँचते मुझे एक घण्टे से ज़्यादा लग गया। पहाड़ वालों ने फिर से धोखा दिया था। दूरी जितनी बतायी गयी थी, उससे कहीं ज़्यादा थी। मणिकर्ण में काफ़ी प्रसिद्ध गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब है, जहाँ दूर-दूर से लोग शीश नवाने आते हैं। मैं इसके पहले कभी गुरुद्वारे नहीं गयी थी। सोचा यह पहली बार होगा। लेकिन शायद ऊपर वाले को यह मंजूर नहीं था। मैं वहाँ पहुँची, तो सिर पर बाँधने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था और गुरुद्वारे में नंगे सिर नहीं जा सकते। इसलिए मैंने भीतर जाने का इरादा त्याग दिया और बाहर से ही गुरुद्वारे के दर्फोशन करके फ़ोटो ले ली। आखिर मैं वहाँ गयी थी, इसका सनद होना जरूरी है ना।

गुरुद्वारा मणिकर्ण साहब। आसपास से गर्म पानी के कुण्ड से उड़ती भाप को देखा जा सकता है।
मणिकर्ण साहिब

कसोल के विपरीत  मणिकर्ण साफ-सुथरा नहीं लगा। सुबह से काफी बारिश भी हो चुकी थी और वहाँ बहुत से टट्टू भी थे। इसलिए चारों तरफ कीचड़ हो गया था। मणिकरण की विशेषता वहाँ के गर्म पानी के स्रोत हैं। उन्हें भी मैंने दूर से ही देख लिया। मैं थोड़ी देर इधर-उधर एक्सप्लोर करती रही। उसके बाद वहाँ से वापस चल दी। इस बार मैंने कसोल के लिए बस पकड़ी और सीधे कसोल के मेन मार्केट पहुँच गयी।

कसोल क़स्बा

मैदानी शहरों और पहाड़ों के कस्बों में कितना फर्क होता है। मैदान में बारिश होते ही हर तरफ पानी भर जाता है। कीचड़ हो जाता है। जबकि पहाड़ पर बहुत कम पानी रुकता है। बारिश के बाद पहाड़ी कस्बे धूल के साफ-सुथरे नज़र आते हैं। मैं जब कसोल पहुँची, तो बारिश की वजह से भीड़ बहुत कम थी। लेकिन दुकानें खुली हुयी थीं। मैंने पहले भी कहा है कि वहाँ स्टूडेंट्स बहुत ज्यादा दिख रहे थे। वे जगह-जगह बैठकर चाय पी रहे थे। माहौल खुशनुमा था। मैं काली चाय पीती हूँ, तो मैंने एक ऐसी दुकान खोजी जहाँ पर ठीकठाक काली चाय मिल जाए। चाय तो बढ़िया मिली, लेकिन पहाड़ पर इसे काली नहीं “लाल चाय” कहते हैं। मैंने “ब्लैक टी” बोला, तो दुकानदार मुस्कुराने लगे।

कसोल की लाल
कसोल की लाल चाय

मैं छाता लेकर घूम रही थी। छाता समेटकर मैंने मेज पर रखा, और चाय पीते हुए इधर-उधर बाज़ार की चहल-पहल देखने लगी। पता नहीं सभी के साथ ऐसा होता है या मेरा ही ऐसा स्वभाव है कि जब कोई जगह बहुत सुंदर लगती है, तो मैं चुप हो जाती हूँ। मुझे ऐसी जगह शांत बैठ कर इधर-उधर निहारना अच्छा लगता है।

आस पास बहुत से ग्रुप थे। कई सोलो ट्रैवलर्स भी थी, जो अपने बैकपैक को रेन कवर से ढंके हुए होमस्टे, हॉस्टल या होटल की तलाश कर रही थीं। लेकिन मेरा किसी से कोई बात करने का मन नहीं हुआ। हाँ, मैंने इधर-उधर टहल-टहलकर कई बार चाय पी, तो दुकान वाला मुझे पहचानने लगा।

जैसा कि बहुत से लोग जानते भी हैं कसोल में इजराइली लोग बहुत हैं। कई इज़रायली रेस्टोरेंट है। लेकिन मैं किसी रेस्टोरेंट में नहीं गयी। मैं कहीं भी जाती हूँ, तो पता नहीं कुछ चीज़ें अगली बार के लिए क्यों छोड़ देती हूं? शायद इसलिए कि वहाँ दोबारा जाने का मौका मिले या शायद मुझे हर बात अधूरी छोड़ देने की आदत है।

आप कसोल जाएंगे तो देखेंगे कि ओल्ड मनाली की ही तरह कई जगह सड़क किनारे मोटरसाइकिल खड़ी मिलेंगी। घुमक्कड़ लोग यहीं से मोटरसाइकिल किराए पर लेते हैं और आसपास की जगहें घूमते हैं।  मेरा भी उस दिन चलल गाँव जाने का इरादा था, लेकिन बदकिस्मती से मैं जब गयी थी, तो मौसम इतना खराब हो गया कि मैं किसी गाँव नहीं जा पायी। न तोष, न चलल और न मलाना। कसोल में ही इधर-उधर भटकती रही। दुकानें खुली थीं, लेकिन खरीदार नहीं थे।

कसोल मार्केट

कसोल कस्बे की गलियों के चक्कर लगाकर और चोज गाँव से मणिकर्कण के सफ़र की यादें लिए मैं वापस अपने होमस्टे की ओर चल पड़ी। चोज के पुल तक पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो गया था। मैं रास्ते बहुत भूलती हूँ। अंधेरा, जंगल और झाड़ियों की वजह से मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि किस रास्ते जाना है? जिस  पगडंडी से मैं होमस्टे जाती थी, वह कई जगह पर दो भागों में बँट जाती थी। मैं बहुत कोशिश कर रही थी, पर मुझे ध्यान ही नहीं आ रहा था कि कौन सी पगडंडी पर निकलूँगी, तो अपने होमस्टे पहुँच पाऊँगी ? बारिश की वजह से कोई बाहर दिख भी नहीं रहा था। पहाड़ में घर इतनी दूर-दूर होते हैं कि अगर मैं कोई ग़लत पगडंडी पकड़ लेती, तो मुझे एक-डेढ़ किलोमीटर तो चलना पड़ जाता। देर भी होती और थकान भी।

लेकिन तभी एक बहुत रोचक बात हुयी। एक काले रंग का कुत्ता, जो मेरे होमस्टे के आसपास दिखा था और सुबह होमस्टे से पुल तक मेरे साथ आया था, मुझे पुल के पास मिल गया। उसने मुझे देखा, पूँछ हिलाकर अभिवादन किया और मेरे आगे-आगे चलना शुरू कर दिया। जैसे वह समझ गया हो कि मैं रास्ता भूल गई हूँ और मुझे जगदीश के घर तक जाना है। मुझे भी पता चल गया कि ये जनाब मेरे तारणहार बनकर प्रकट हुए हैं। मैं उसके पीछे चल पड़ी। आप यक़ीन नहीं कि मानेंगे कि उसने मुझे मेरे होमस्टे तक पहुँचा दिया।

शेष अगली पोस्ट में…

इस शृंखला की पहली कड़ी-

कसोल की यात्रा के मेरे अनुभव- मेरी पहली सोलो ट्रिप (भाग 1) 

 

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